Posts

Showing posts from November, 2022

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 14

Image
  कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय ।  अभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम् ॥१३॥ इसी कारण जनक जी को आत्मज्ञान का उपदेश पुनः-पुनः करते हुए अष्टावक्र जी कहते हैं, "मुमुक्षु मनुष्य को इसी विचार से दृढ़ होना चाहिए कि आत्मा निर्विकार है, ज्ञान स्वरूप है, अद्वैत है, अखंड है। बाह्य और आन्तरिक रूपों में भेद की भावना और उससे पैदा हुए भ्रम का परित्याग करना ही उचित है ॥१३॥ ' मैं आभास—रूप अहंकारी जीव हूं ऐसे भ्रम को और बाहर—भीतर के भाव को छोड़ कर तू कूटस्थ बोध—रूप अद्वैत आत्मा का विचार कर। ’ ' अहं आभास: इति—मैं आभास—रूप अहंकारी जीव हूं! ' यह तुमने जो अब तक मान रखा है ,  यह सिर्फ आभास है। यह तुमने जो मान रखा है ,  यह तुम्हारी मान्यता है ,  मति है। यद्यपि तुम्हारे आसपास भी ऐसा ही मानने वाले लोग हैं ,  इसलिए तुम्हारी मति को बल भी मिलता है। आखिर आदमी अपनी मति उधार लेता है। तुम दूसरों से सीखते हो। आदमी अनुकरण करता है। यहां सभी दुखी हैं ,  तुम भी दुखी हो गये हो। तुमने अगर सोचा कि कारण होगा तब सुखी होंगे ,  तो तुम कभी सुखी न होओगे। कारण खोजने वाला और—और दुखी होता जाता है। कारण दुख

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 13

Image
  आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्ताश्चिदक्रियः ।  असंगोनिःस्ष्टहः शांतो भ्रमात्संसारवानिव ॥१२॥ आत्मा स्वभाव से ही विभु (सर्व का अधिष्ठान ) है, सर्वत्रव्याप्त है, कर्म-बंधन से मुक्त है, विषय - वृत्ति से असंग है, आत्मा निस्पृह (विषयों की अभिलाषा से रहित) है, प्रवृत्ति निवृत्ति रहित है और सदा शान्त है। आत्मा का संसारी रूप केवल भ्रम है, जो अज्ञान से पैदा होता है ॥ १२ ॥ (ज्ञान की स्थिति बनाए रखने के लिए श्रवण-मनन आदि की आवृत्ति बार-बार करनी चाहिए। महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को 'तत्त्वमसि' महावाक्य का नौ बार उपदेश किया था।) ' आत्मा साक्षी है, व्यापक है, पूर्ण है, एक है, मुक्त है, चेतन है, क्रिया—रहित है, असंग है, निस्पृह है, शांत है। वह भ्रम के कारण संसार जैसा भासता है।’ साक्षी, व्यापक, पूर्ण—सुनो इस शब्द को! अष्टावक्र कहते हैं, तुम पूर्ण हो! पूर्ण होना नहीं है। तुममें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। तुममें कुछ विकास नहीं करना है। तुम्हें कुछ सोपान नहीं चढ़ने हैं। तुम्हारे आगे कुछ भी नहीं है। तुम पूर्ण हो, तुम परमात्मा हो, व्यापक हो, साक्षी हो, एक

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 12

Image
  मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।  किंवदंतीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥ ११ ॥ जिस व्यक्ति को यह निश्चय हो जाता है कि 'मैं मुक्त रूप हूँ ।" वही मुक्त हो जाता है और जो समझता है कि मैं अल्पज्ञ जीव 'संसार बन्धन में अनिवार्य रूप से बँधा हूँ, वह बँधा रहता है। जैसी मति, वैसी ही गति होती है यह लोकप्रिय किंवदन्ती सत्य ही है ॥ ११ ॥ (बंधन और मोक्ष ये सब मन के धर्म हैं। मुझमें ये सब तीनों में नहीं हैं, किन्तु मैं सबका साक्षी हूँ, ऐसा दृढ़ निश्चयवाला ही नित्य मुक्त है) ' मुक्ति का अभिमानी मुक्त है और बद्ध का अभिमानी बद्ध है। क्योंकि इस संसार में यह लोकोक्ति सच है कि जैसी मति वैसी गति। ’ यह सूत्र मूल्यवान है। ' मुक्ति का अभिमानी मुक्त है। ’ जिसने जान लिया कि मैं मुक्त हूं वह मुक्त है। मुक्ति के लिए कुछ और करना नहीं ;  इतना जानना ही है कि मैं मुक्त हूं! तुम्हारे करने से मुक्ति न आयेगी ,  तुम्हारे जानने से मुक्ति आयेगी। मुक्ति कृत्य का परिणाम नहीं ,  ज्ञान का फल है। मुक्ति का अभिमानी मुक्त है ,  और बद्ध का अभिमानी बद्ध है। ’ जो सोचता है मैं बंधा हूं वह बंधा है। ज

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 11

Image
  यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।  आनन्दपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर ॥१०॥ जिस प्रकार अज्ञानवश रस्सी में सर्प की प्रतीति होने से भय की उत्पत्ति होती है और सच्चाई जान लेने के बाद अज्ञान-जनित भय की स्वयं निवृत्ति हो जाती है, उसी प्रकार जगत की असत्यता जान लेने पर सभी दुःख स्वयं दूर हो जाते हैं। राजन! आप भी सत्य का बोध करके आनन्द-परमानन्द की प्राप्ति कीजिए ॥१०॥ ' जिसमें यह कल्पित संसार रस्सी में सांप जैसा भासता है ,  तू वही आनंद परमानंद बोध है। अतएव तू सुखपूर्वक विचर। ’ यहां दुख का कोई कारण ही नहीं है। तुम नाहक एक दुख—स्वप्न में दबे और परेशान हुए जा रहे दुख—स्वप्न तुमने देखा ?  अपने ही हाथ छाती पर रखकर आदमी सो जाता है ,  हाथ के वजन से रात नींद में लगता है कि छाती पर कोई भूत—प्रेत चढ़ा है! अपने ही हाथ रखे हैं छाती पर ,  उनका ही वजन पड़ रहा है ;  लेकिन निद्रा में वही वजन भ्रांति बन जाता है। या अपना ही तकिया रख लिया अपनी छाती पर ,  लगता है पहाड़ गिर गया! चीखता है ,  चिल्लाता है। चीख भी नहीं निकलती। हाथ—पैर हिलाना चाहता है। हाथ—पैर भी नहीं हिलते—ऐसी घबड़ाहट बैठ जाती है। फिर जब नींद भ

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 10

Image
  एको विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना  प्रज्वाल्याज्ञानगहन वीतशीकः सुखीभव ॥९॥ अष्टावक्र जी स्पष्ट करते हैं कि मैं विशुद्ध ज्ञान - स्वरूप इस दिव्य विश्वास और ज्ञान की पवित्र अग्नि की तीव्र ज्वाला में देह-भाव का अज्ञान स्वयं ही भस्म हो जाएगा और तत्वतः प्रकाशित चेतना से परम सुख की प्राप्ति स्वयं हो जाएगी ॥ ९ ॥ 'मैं एक विशुद्ध बोध हूं ऐसी निश्चय—रूपी अग्नि से अज्ञान—रूपी वन को जला कर तू वीतशोक हुआ सुखी हो।’ अभी हो जा दुख के पार! एक छोटी—सी बात को जान लेने से दुख विसर्जित हो जाता है कि मैं विशुद्ध बोध हूं कि मैं मात्र साक्षी— भाव हूं कि मैं केवल द्रष्टा हूं। अहंकार का रोग एकमात्र रोग है। जितना तुम चाहोगे उतना ही तुम्हारे जीवन में दुख होगा। जितना तुम देखोगे कि बिना चाहे कितना मिला है! अपूर्व तुम्हारे ऊपर बरसा है! अकारण! तुमने कमाया क्या है? क्या थी कमाई तुम्हारी, जिसके कारण तुम्हें जीवन मिले? क्या है तुम्हारा अर्जन, जिसके कारण क्षण भर तुम सूरज की किरणों में नाचो, चांद—तारों से बात करो? क्या है कारण? क्या है तुम्हारा बल? क्या है प्रमाण तुम्हारे बल का, कि हवाएं तुम्हें छुए और तुम गुनगुनाओ,

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 9

Image
  अहं कतर्तात्यहंमानमहाकृष्णाहिदंसितः ।  नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखीभव ॥८॥ कर्ता हूँ, यह अहंभाव, अहंकार रूपी महाकाल सर्प विषमुक्त के शरीर में प्रवेश कर लेता है (और सारा संसार जन्म-मरण रूपी चक्र में पड़कर भटकता रहता है)। मैं कर्ता या भोक्ता नहीं हूँ - इस विश्वास का अमृत पीकर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। आप भी इस पर श्रद्धा रखकर सुखी जीवन बिता सकते हैं ॥८ ॥ ' मैं कर्ता हूं, ऐसे अहंकार—रूपी अत्यंत काले सर्प से दशित हुआ तू 'मैं कर्ता नहीं हूं ', ऐसे विश्वास—रूपी अमृत को पीकर सुखी हो।’ ' अहं कर्ता इति—मैं कर्ता हूं ऐसे अहंकार—रूपी अत्यंत काले सर्प से दशित हुआ तू..।’ हमारी मान्यता ही सब कुछ है। हम मान्यता के सपने में पड़े हैं। हम अपने को जो मान लेते हैं, वही हो जाते हैं। यह बड़ी विचार की बात है। यह पूरब के अनुभव का सार—निचोड़ है। हमने जो मान लिया है अपने को, वही हम हो जाते हैं। हम जो मानते हैं गहन श्रद्धा में, वही हो जाता है। 'मैं कर्ता हूं ऐसे अहंकार—रूपी अत्यंत काले सर्प से दंशित हुआ तू मैं कर्ता नहीं हूं, ऐसे विश्वास—रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।’ यह वचन खयाल रखना,

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 8

Image
  अष्टावक्र उवाच। एको द्रष्टाsसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा। अयमेव हि ते बंधो द्रष्टारं यश्यसीतरम्।।7।। मन में यह धारणा स्थिर कर लो कि आप तो आत्मा हैं, देह नहीं हैं। आत्मा तो मात्र दृष्टा है, साक्षी मात्र है; कर्म का कर्ता नहीं है। वह स्वभाव से मुक्त ही है । इस दृष्टा को कर्ता या भोक्ता रूप में देखने की इच्छा करना ही अज्ञान है और यह अज्ञान ही बंधन का कारण बन जाता है। (अज्ञानी लोग ही मानते हैं कि अपने से भिन्न कोई दृष्टा है और कर्मों का फल प्रदाता है। ज्ञानवान ऐसा नहीं मानते) !!7!! अष्‍टावक्र ने कहा, तू सबका एक द्रष्टा है और सदा सचमुच मुक्त है। तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़ दूसरे को द्रष्टा देखता है।’ यह सूत्र अत्यंत बहुमूल्य है। एक—एक शब्द इसका ठीक से समझें! 'तू सबका एक द्रष्टा है। एको द्रष्टाऽसि सर्वस्व! और सदा सचमुच मुक्त है।’ साधारणत: हमें अपने जीवन का बोध दूसरों की आंखों  से मिलता है। हम दूसरों की आंखों  का दर्पण की तरह उपयोग करते हैं। इसलिए हम द्रष्टा को भूल जाते हैं, और दृश्य बन जाते है। स्वाभाविक भी है। छोटा बच्चा पैदा हुआ। उसे अभी अपना कोई पता नहीं। वह दूसरों की

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 7

Image
  धर्माऽधमौं सुखं दुःख मानसानि न तो विभो। न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।6।। अष्टावक्र जी आगे कहते हैं कि हे राजन! संसारी धर्म-अधर्म सुख-दुःख सभी आपके मन के मिथ्या संकल्प का परिणाम हैं। विधि-निषेध के ये रूप अस्थायी हैं, परिवर्तनशील हैं। आत्मा न तो कर्ता है और न भोक्ता है, वह तो सदा-सर्वदा इनमें मुक्त रहता है। यही उसका सच्चा स्वभाव है ||६|| मुक्ति हमारा स्वभाव है। ज्ञान हमारा स्वभाव है। परमात्मा हमारा होने का ढंग है; हमारा केंद्र है; हमारे जीवन की सुवास है; हमारा होना है। धर्माउधमौं सुखं दुःखं मानसानि न तो विभो। अष्टावक्र कहते हैं, 'हे व्यापक, हे विभावान, हे विभूतिसंपन्न! धर्म और अधर्म, सुख और दुख मन के हैं।’ ये सब मन की ही तरंगें हैं। बुरा किया, अच्छा किया, पाप किया, पुण्य किया, मंदिर बनाया, दान दिया—सब मन के हैं। न कर्ताउसि न भोक्ताउसि मुक्त एवासि सर्वदा। 'तू तो सदा मुक्त है। तू तो सर्वदा मुक्त है।’ मुक्ति कोई घटना नहीं है जो हमें घटानी है। मुक्ति घट चुकी है हमारे होने में! मुक्‍ति से बना है यह अस्तित्व। इसका रोआं—रोआं, रंच—रंच मुक्ति से निर्मित है। मुक्ति है धातु,

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 6

Image
  न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचर:। असंगोऽमि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।5।। यदि आप सचमुच आत्म-ज्ञान के जिज्ञासु और ब्रह्म-ज्ञान-पथ के पथिक हैं, तो यह जानना अनिवार्य है कि आपकी आत्मा न तो विप्रादि किसी वर्ण की है और न ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि किसी आश्रम के बन्धन में बँधी है। वह आँखों से प्रत्यक्ष दिखनेवाले प्रत्येक विषय और बन्धन से मुक्त है, असंग है, निराकर है। वह तो इस दृश्यमान विश्व के इन सब रूपों का साक्षी मात्र है। इनमें लिप्त नहीं है। यह जान-समझ लेने पर आप सदा सुखी रहेंगे ||५|| 'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है।’ अब हिंदू इस शास्त्र को कैसे सिर पर उठायें! क्योंकि उनका तो सारा धर्म वर्ण और आश्रम पर खड़ा है। और यह तो पहले से ही अष्टावक्र जड़ काटने लगे। वे कहते हैं, तू कोई ब्राह्मण नहीं है, न कोई शूद्र है, न कोई क्षत्रिय है। यह सब बकवास है! ये सब ऊपर के आरोपण हैं। यह सब राजनीति और समाज का खेल है। तू तो सिर्फ ब्रह्म है, ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय नहीं, शूद्र नहीं! 'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं और न तू कोई आश्रम वाला है।’ और न तो यह है कि तू कोई ब्रह्मचर्य—आश्रम में है कि गृहस्थ—

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 5

Image
  यदि देहं पृथस्कृत्य निति विश्राम्ब तिष्ठसि। अधुनैव सखी शांत: बंधमक्तो भविष्यसि।।4।। (मुक्ति के स्वरूप तथा उसे प्राप्त करने के उपाय बताते हुए ऋषिवर कहते हैं) इन पंच भूतों से आपकी देह ही बनी है, आत्मा इनसे पृथक है। आत्मा को देह से पृथक मानकर जिस समय आप अपने विशुद्ध चैतन्य रूप में मन को स्थिर करोगे, उसी समय परम शान्ति और सुख का अनुभव होगा; आपको जीवन मुक्त होने की प्रतीति होगी, मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् अनुभव हो जाएगा और दुःखों से स्वतः मुक्ति मिल जाएगी ॥ ४ ॥ 'अधुनैव!' अभी, यहीं, इसी क्षण! 'यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है...!' अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं; मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है—बचपन था कभी तो बचपन देखा, फिर जवानी आयी तो जवानी देखी, फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं हो सकता—आया और गया, मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकता— आई और गई; मैं तो हूं! बुढ़ापा आया, जा रहा है, तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 4

Image
  न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुधौर्न वा भवान्। एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्दि मुक्तये।।3।। राजन! आप विश्व व्याप्त दिव्य चेतना के ही अंश हैं। अजर अमर नित्य चैतन्य आत्मा है, यही आपका सच्चा स्वरूप है। आप न पृथ्वी हैं न जल, न अग्नि, न वायु और नही आकाश हैं। इन पंच भूतों से अलग केवल इनके साक्षीभूत स्वतः ज्ञानमय आत्मा है, जड़ पंच भूतों के अंश नहीं सीधी—सीधी बातें हैं; भूमिका भी नहीं है। अभी दो वचन नहीं बोले अष्टावक्र ने कि ध्यान आ गया, कि समाधि की बात आ गई। जानने वाले के पास समाधि के अतिरिक्त और कुछ जताने को है भी नहीं। वह दो वचन भी बोले, क्योंकि एकदम से अगर समाधि की बात होगी तो शायद तुम चौंक ही जाओगे, समझ ही न पाओगे। मगर दो वचन—और सीधी समाधि की बात आ गई! 'तू न पृथ्वी है, न जल, न वायु, न आकाश'—ऐसी प्रतीति में अपने को थिर कर।’मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।' 'साक्षी' सूत्र है। इससे महत्वपूर्ण सूत्र और कोई भी नहीं। देखने वाले बनो! जो हो रहा है उसे होने दो; उसमें बाधा डालने की जरूरत नहीं। यह देह तो जल है, मिट्टी है, अग्नि है, आकाश है। तुम इसके

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 3

Image
  अष्टावक्र उवाच। मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज। क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद् भज।। 2।। अष्टावक्र ने कहा राजन मुक्ति चाहते हो, तो पहले सब प्रकार के सांसारिक विषय-भोगों को विष मानकर उनको सर्वथा परित्याग करना होगा। (क्योकि विषयों के भोगने से प्राणी संसार-चक्र रूपी मृत्यु को ही प्राप्त होता है।) और पाँच सद्गुणों को अपने विचारों और कार्यों में अमृत के समान धारण करना होगा। ये पाँच सद्गुण है - क्षमा, दया,( आर्जव)  सरलता, संतोष और सत्य ॥२ ॥ मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज। शब्द  ' विषय '  बड़ा बहुमूल्य है—वह विष से ही बना है। विष का अर्थ होता है ,  जिसे खाने से आदमी मर जाये। विषय का अर्थ होता है ,  जिसे खाने से हम बार—बार मरते हैं। बार—बार भोग ,  बार—बार भोजन ,  बार—बार महत्वाकांक्षा ,  ईर्ष्या ,  क्रोध ,  जलन—बार—बार इन्हीं को खा—खा कर तो हम मरे हैं! बार—बार इन्हीं के कारण तो मरे हैं! अब तक हमने जीवन में जीवन कहा जाना ,  मरने को ही जाना है। अब तक हमारा जीवन जीवन की प्रज्वलित ज्योति कहां ,  मृत्यु का ही धुआ है। जन्म से ले कर मृत्यु तक हम मरते ही तो हैं धीरे—धीरे ,  जीते

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 2

Image
  जनक उवाच। कथं ज्ञानमवाम्मोति कथं मुक्तिर्भविष्यति। वैराग्य ब कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो।। १।। गुरुवर, कृपया यह बतलाइए कि वह ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ होगा, जिससे मुक्ति मिले? और यह भी कि वैराग्य की साधना कैसे पूर्ण होगी? ।। १ ।। पहला सूत्र : जनक ने कहा, 'हे प्रभो, पुरुष ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है। और मुक्ति कैसे होगी और वैराग्य कैसे प्राप्त होगा? यह मुझे कहिए! एतत मम लूहि प्रभो! मुझे समझायें प्रभो!' बारह साल के लड़के से सम्राट जनक का कहना है : 'हे प्रभु! भगवान! मुझे समझायें! एतत मम लूहि! मुझ नासमझ को कुछ समझ दें! मुझ अज्ञानी को जगायें!' तीन प्रश्न पूछे हैं— 'कथं ज्ञानम्! कैसे होगा ज्ञान!' साधारणत: तो हम सोचेंगे कि 'यह भी कोई पूछने की बात है? किताबों में भरा पड़ा है।’ जनक भी जानता था। जो किताबों में भरा पड़ा है, वह ज्ञान नहीं; वह केवल ज्ञान की धूल है, राख है! ज्ञान की ज्योति जब जलती है तो पीछे राख छूट जाती है। राख इकट्ठी होती चली जाती है, शास्त्र बन जाती है। जनक भी जानता था कि शास्त्रों में सूचनाएं भरी पड़ी हैं। लेकिन उसने पूछा, 'कथं ज्ञानम्? कैसे होगा

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 1

Image
   अष्टावक्र—गीता मनुष्य—जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र—गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं हैं—सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है—बिना किसी लाग—लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा, इसकी भी चिंता नहीं है। सत्य का ऐसा शुद्धतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका। अष्टावक्र का वक्तव्य शुद्ध गणित का वक्तव्य है। वहां काव्य को जरा भी जगह नहीं है। वहां कविता के लिए जरा—सी भी छूट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है। किसी तरह का समझौता नहीं है।  अष्टावक्र की गीता में तुम कोई अर्थ न खोज पाओगे। तुम अपने को छोड़ कर चलोगे तो ही अष्टावक्र की गीता स्पष्ट होगी। अष्टावक्र का सुस्पष्ट संदेश है। उसमें जरा भी तुम अपनी व्याख्या न डाल सकोगे।