अष्‍टावक्र : महागीता भाग 9

 अहं कतर्तात्यहंमानमहाकृष्णाहिदंसितः । 

नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखीभव ॥८॥


कर्ता हूँ, यह अहंभाव, अहंकार रूपी महाकाल सर्प विषमुक्त के शरीर में प्रवेश कर लेता है (और सारा संसार जन्म-मरण रूपी चक्र में पड़कर भटकता रहता है)। मैं कर्ता या भोक्ता नहीं हूँ - इस विश्वास का अमृत पीकर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। आप भी इस पर श्रद्धा रखकर सुखी जीवन बिता सकते हैं ॥८ ॥


'मैं कर्ता हूं, ऐसे अहंकार—रूपी अत्यंत काले सर्प से दशित हुआ तू 'मैं कर्ता नहीं हूं ', ऐसे विश्वास—रूपी अमृत को पीकर सुखी हो।’

' अहं कर्ता इति—मैं कर्ता हूं ऐसे अहंकार—रूपी अत्यंत काले सर्प से दशित हुआ तू..।’

हमारी मान्यता ही सब कुछ है। हम मान्यता के सपने में पड़े हैं। हम अपने को जो मान लेते हैं, वही हो जाते हैं। यह बड़ी विचार की बात है। यह पूरब के अनुभव का सार—निचोड़ है। हमने जो मान लिया है अपने को, वही हम हो जाते हैं।

हम जो मानते हैं गहन श्रद्धा में, वही हो जाता है।

'मैं कर्ता हूं ऐसे अहंकार—रूपी अत्यंत काले सर्प से दंशित हुआ तू मैं कर्ता नहीं हूं, ऐसे विश्वास—रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।’

यह वचन खयाल रखना, बार—बार अष्टावक्र कहते हैं. सुखी हो। वह कहते हैं, इसी क्षण घट सकती है बात।

अहं कर्ता इति—मैं कर्ता हूं, ऐसी हमारी धारणा है। उस धारणा के अनुसार हमारा अहंकार निर्मित होता है। कर्ता यानी अस्मिता। मैं कर्ता हूं, उसी से हमारा अहंकार निर्मित होता है। इसलिए जितना बड़ा कर्ता हो उतना बड़ा अहंकार होता है। तुमने अगर कुछ खास नहीं किया तो तुम क्या अहंकार रखोगे? तुमने एक बड़ा मकान बनाया, उतना ही बड़ा तुम्हारा अहंकार हो जाता है। तुमने एक बड़ा साम्राज्य रचाया, तो उतनी ही सीमा तुम्हारे अहंकार की हो जाती है।

अहंकार जीता है उस सीमा पर, जो तुम कर सकते हो। इसलिए तुम देखना, अहंकारी आदमी  'हां' कहने में बड़ी मजबूरी अनुभव करता है।

तुम अपने में ही निरीक्षण करना। यह मैं कोई दूसरों को जांचने के लिए तुम्हें मापदंड नहीं दे रहा हूं तुम अपना ही आत्मविश्लेषण करना।’नहीं' कहने में मजा आता है, क्योंकि 'नहीं' कहने में बल मालूम पड़ता है। बेटा पूछता है मां से कि जरा बाहर खेल आऊं, वह कहती है कि नहीं! नहीं! अभी बाहर खेलने में कोई हर्जा भी नहीं है। बाहर नहीं खेलेगा बेटा तो कहां खेलेगा। और मां भी जानती है कि जायेगा ही वह, थोड़ा शोरगुल मचायेगा, वह भी अपना बल दिखलायेगा। बलों की टक्कर होगी। थोड़ी राजनीति चलेगी। वह चीख—पुकार मचायेगा, बर्तन पटकेगा, तब वह कहेगी, ' अच्छा जा, बाहर खेल!' लेकिन वह जब कहेगी, 'जा, बाहर खेल', तब ठीक है, तब उसकी आज्ञा से जा रहा है!

इसलिए जो बहुत अहंकारी हैं वे नास्तिक हो जाते हैं। नास्तिक का मतलब, उन्होंने आखिरी 'नहीं' कहा। उन्होंने कह दिया, ईश्वर भी नहीं; और की तो बात छोड़ो।

नास्तिक का अर्थ है कि उसने आखिरी, अल्टीमेट, परम इनकार कर दिया। आस्तिक का अर्थ है : उसने परम स्वीकार कर लिया, उसने 'हां' कह दिया ईश्वर है। ईश्वर को 'हां' कहने का मतलब है : मैं न रहा। ईश्वर को 'ना' कहने का मतलब है, बस ' हां रहा : अब मेरे ऊपर कोई भी नहीं; मेरे पार कोई भी नहीं; मेरी सीमा बांधने वाला कोई भी नहीं।

हमारा कर्तव्य हमारे अहंकार को भरता है। इसलिए अष्टावक्र के इस सूत्र को खयाल करना :  'मैं कर्ता हूं—अहं कर्ता इति—ऐसे अहंकार—रूपी अत्यंत काले सर्प से दंशित हुआ तू व्यर्थ ही पीड़ित और परेशान हो रहा है।’

यह पीड़ा कोई बाहर से नहीं आती। यह दुख जो हम झेलते हैं, अपना निर्मित किया हुआ है। जितना बड़ा अहंकार उतनी पीड़ा होगी। अहंकार घाव है। जरा—सी हवा का झोंका भी दर्द दे जाता है।     निरहंकारी व्यक्ति को दुखी करना असंभव है। अहंकारी व्यक्ति को सुखी करना असंभव है। अहंकारी व्यक्ति ने तय ही कर लिया है कि अब सुखी नहीं होना है। क्योंकि सुख आता है 'हां'— भाव से, स्वीकार—भाव से। सुख आता है यह बात जानने से कि मैं क्या हूं? एक बूंद हूं सागर में! सागर की एक बूंद हूं! सागर ही है, मेरा होना क्या है?

जिस व्यक्ति को अपने न होने की प्रतीति सघन होने लगती है, उतने ही सुख के अंबार उस पर बरसने लगते हैं। जो मिटा वह भर दिया जाता है। जिसने अकड़ दिखायी, वह मिट जाता है।

'……मैं कर्ता ऐ,से तू सुखी हो'

मैं कर्ता नहीं हूं, ऐसे भाव को अष्‍टावक्र अमृत कहते है। अहं न कर्ता इति—यहीं अमृत है।

इसका एक अर्थ और भी समझ लेना चाहिएँ। सिर्फ अहंकार मरता है, तुम कभी नहीं मरते। इसलिए अहंकार मृत्यु है, विष है। जिस दिन तुमने जान लिया कि अहंकार है ही नहीं, बस मेरे भीतर परमात्मा ही है, उसका ही एक फैलाव, उसकी एक किरण, उसकी ही एक बूंद—फिर तुम्हारी कोई मृत्यु नहीं. फिर तुम अमृत हो।

परमात्मा के साथ तुम अमृत हो; अपने साथ तुम मरणधर्मा हो। अपने साथ तुम अकेले हो, संसार के विपरीत हो, अस्तित्व के विपरीत हो—तुम असंभव युद्ध में लगे हो, जिसमें हार सुनिश्चित है। परमात्मा के साथ सब तुम्‍हारे साथ है: जिसमें हार असंभव, जीत सुनिश्‍चितहै। सबको साथ लो लेकिन चल पड़ो। जहां सहयोग से घट सकता हो, वहां संघर्ष क्‍यों करते हो? जहां झुक कर मिल सकता हो, वहां लड़ कर लेने की चेष्टा क्यों करते हो? जहां सरलता से, विनम्रता से मिल जाता हो, वहां तुम व्यर्थ ही ऊधम क्यों मचाते हो, व्यर्थ का उत्पात क्यों करते हो?

'मैं कर्ता नहीं हूं ऐसे विश्वास—रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।’

जनक ने पूछा है. कैसे हम सुखी हों? कैसे सुख हो? कैसे मुक्ति मिले?

कोई विधि नहीं बता रहे हैं अष्टावक्र। वे यह नहीं कह रहे हैं कि साधो इस तरह। वे कहते हैं, देखो इस तरह। दृष्टि ऐसी हो, बस! यह सारा दृष्टि का ही उपद्रव है। दुखी हो तो गलत दृष्टि आधार है। सुखी होना है तो ठीक दृष्टि।

'……. विश्वास—रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।’

इसमें विश्वास की भी परिभाषा समझने जैसी है। अविश्वास का अर्थ होता है. तुम अपने को समग्र के साथ एक नहीं मानते। उसी से संदेह उठता है। अगर तुम समग्र के साथ अपने को एक मानते हो तो कैसा अविश्वास! जहां ले जाएगा अस्तित्व, वहीं शुभ है। न हम अपनी मर्जी आये, न अपनी मर्जी जाते हैं। न तो हमें जन्म का कोई पता है—क्यों जन्मे? न हमें मृत्यु का कोई पता है—क्यों मरेंगे? न हमसे किसी ने पूछा जन्म के पहले कि 'जन्मना चाहते हो?' न कोई हमसे मरने के पहले पूछेगा कि  'मरोगे, मरने की इच्छा है?' सब यहां हो रहा है। हमसे कौन पूछता है? हम व्यर्थ ही बीच में क्यों अपने को लाएं?

जिससे जीवन निकला है, उसी में हम विसर्जित होंगे। और जिसने जीवन दिया है, उस पर अविश्वास कैसा? जहां से इस सुंदर जीवन का आविर्भाव हुआ है, उस स्रोत पर अविश्वास कैसा? जहां से ये फूल खिले हैं, जहां ये कमल खिले हैं, जहां ये चांद—तारे हैं, जहां ये मनुष्य हैं, पशु—पक्षी हैं, जहां इतना गीत है, जहां इतना संगीत है, जहां इतना प्रेम है—उस पर अविश्वास क्यों?

विश्वास का अर्थ है. हम अपने को विजातीय नहीं मानते, परदेसी नहीं मानते, हम अपने को इस अस्तित्व के साथ एक मानते हैं। इस एक की उदघोषणा के होते ही जीवन में सुख की वर्षा हो जाती है।

'ऐसे विश्वास—रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।’

विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव।

अभी हो जा सुखी! पीत्वा सुखी भव! इसी क्षण हो जा सुखी!



ओशो रजनीश 



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