अष्टावक्र : महागीता भाग 14
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय ।
अभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम् ॥१३॥
इसी कारण जनक जी को आत्मज्ञान का उपदेश पुनः-पुनः करते हुए अष्टावक्र जी कहते हैं, "मुमुक्षु मनुष्य को इसी विचार से दृढ़ होना चाहिए कि आत्मा निर्विकार है, ज्ञान स्वरूप है, अद्वैत है, अखंड है। बाह्य और आन्तरिक रूपों में भेद की भावना और उससे पैदा हुए भ्रम का परित्याग करना ही उचित है ॥१३॥
'मैं आभास—रूप अहंकारी जीव हूं ऐसे भ्रम को और बाहर—भीतर के भाव को छोड़ कर तू कूटस्थ बोध—रूप अद्वैत आत्मा का विचार कर।’
'अहं आभास: इति—मैं आभास—रूप अहंकारी जीव हूं!'
यह तुमने जो अब तक मान रखा है, यह सिर्फ आभास है। यह तुमने जो मान रखा है, यह तुम्हारी मान्यता है, मति है। यद्यपि तुम्हारे आसपास भी ऐसा ही मानने वाले लोग हैं, इसलिए तुम्हारी मति को बल भी मिलता है। आखिर आदमी अपनी मति उधार लेता है। तुम दूसरों से सीखते हो। आदमी अनुकरण करता है। यहां सभी दुखी हैं, तुम भी दुखी हो गये हो।
तुमने अगर सोचा कि कारण होगा तब सुखी होंगे, तो तुम कभी सुखी न होओगे। कारण खोजने वाला और—और दुखी होता जाता है। कारण दुख के हैं। सुख स्वभाव है। कारण को निर्मित करना पड़ता है। दुख को भी निर्मित करना पड़ता है। सुख है। सुख मौजूद है। सुख को प्रगट करो। यही अष्टावक्र का बार—बार कहना है।
बोधस्ल सुखं चर!
वीतशोक: सुखी भव!
'विश्वासामृत पीत्वा सुखी भव!' पी ले अमृत, हो जा सुखी!
मनुष्य पूर्ण है, एक है, मुक्त है। सिर्फ आभास बाधा डाल रहा है।
'मैं आभास—रूप अहंकारी जीव हूं ऐसे भ्रम को और बाहर— भीतर के भाव को छोड़ कर तू कूटस्थ बोध—रूप अद्वैत आत्मा का विचार कर।’
ओशो रजनीश
Comments
Post a Comment