अष्टावक्र : महागीता भाग 11
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनन्दपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर ॥१०॥
जिस प्रकार अज्ञानवश रस्सी में सर्प की प्रतीति होने से भय की उत्पत्ति होती है और सच्चाई जान लेने के बाद अज्ञान-जनित भय की स्वयं निवृत्ति हो जाती है, उसी प्रकार जगत की असत्यता जान लेने पर सभी दुःख स्वयं दूर हो जाते हैं। राजन! आप भी सत्य का बोध करके आनन्द-परमानन्द की प्राप्ति कीजिए ॥१०॥
'जिसमें यह कल्पित संसार रस्सी में सांप जैसा भासता है, तू वही आनंद परमानंद बोध है। अतएव तू सुखपूर्वक विचर।’
यहां दुख का कोई कारण ही नहीं है। तुम नाहक एक दुख—स्वप्न में दबे और परेशान हुए जा रहे दुख—स्वप्न तुमने देखा? अपने ही हाथ छाती पर रखकर आदमी सो जाता है, हाथ के वजन से रात नींद में लगता है कि छाती पर कोई भूत—प्रेत चढ़ा है! अपने ही हाथ रखे हैं छाती पर, उनका ही वजन पड़ रहा है; लेकिन निद्रा में वही वजन भ्रांति बन जाता है। या अपना ही तकिया रख लिया अपनी छाती पर, लगता है पहाड़ गिर गया! चीखता है, चिल्लाता है। चीख भी नहीं निकलती। हाथ—पैर हिलाना चाहता है। हाथ—पैर भी नहीं हिलते—ऐसी घबड़ाहट बैठ जाती है। फिर जब नींद भी टूट जाती है तो भी पाता है पसीना—पसीना है। नींद भी टूट जाती है, जाग भी जाता है, समझ भी लेता है—कोई दुश्मन नहीं, कोई पहाड़ नहीं गिरा, अपना ही तकिया अपनी छाती पर रख लिया, कि अपने ही हाथ अपनी छाती पर रख लिए थे—तो भी सांस धक—धक चल रही है, जैसे मीलों दौड़कर आया हो। सपना टूट गया, फिर भी अभी तक परिणाम जारी है।
जिनको हम यह संसार के दुख कह रहे हैं, वे हमारे ही बोध की भ्रांतियां हैं।
'जिसमें यह कल्पित संसार रस्सी में सांप जैसा भासता है...।’
तुमने देखा कभी, रस्सी पड़ी हो रास्ते पर अंधेरे में, बस सांप का खयाल आ जाता है! खयाल आ गया तो रस्सी पर सांप आरोपित हो गया। भागे! चीख—पुकार मचा दी! हो सकता है दौड़ने में गिर पड़ो, हाथ—पैर तोड़ लो, तब बाद में पता चले कि सिर्फ रस्सी थी, नाहक दौड़े! लेकिन फिर क्या होता है? हाथ—पैर तोड़ चुके! लेकिन अगर तुम्हारे पास थोड़ा—सा भी बोध का दीया हो, प्रकाश हो थोड़ा, तो अंधेरी से अंधेरी रात में भी तुम बोध के दीये से देख पाओगे कि रस्सी रस्सी है, सर्प नहीं है। इस बोध में ही आनंद और परमानंद का जन्म होता है।
'……अतएव तू सुखपूर्वक विचर!'
तेरे पास सूत्र है। तेरे पास ज्योति है। ज्योति को तूने नाहक के परदों में ढाका। परदे हटा। घूंघट के पट खोल! विचार के, वासना के, अपेक्षा के, कल्पनाओं के, सपनों के परदे हटाओ। वे ही हैं घूंघट। घूंघट को हटाओ। खुली आंख से देखो।
लोग बुर्के ओढ़े बैठे हैं। उन बुर्कों के कारण कुछ दिखायी नहीं पड़ता। धक्के खा रहे हैं, गड्डों में गिर रहे हैं।
'……वही आनंद परमानंद बोध है। अतएव तू सुखपूर्वक विचर।’
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनंद परमानंद: स बोधस्तवं सुखं चर।।
इस थोड़े—से बोध को समझ लो, पकड़ लो, पहचान लो—फिर विचरण करो सुख में। यह अस्तित्व परम आनंद है। इस अस्तित्व ने दुख जाना नहीं। दुख तुम्हारा निर्मित किया हुआ है।
कठिन है समझना यह बात, क्योंकि हम इतने दुख में जी रहे हैं, हम कैसे मानें कि दुख नहीं है। वह जो रस्सी को देखकर भाग गया है, वह भी नहीं मानता की सर्प नहीं है। वह जो हाथ रखकर छाती पर पड़ा है और सोचता है पहाड़ गिर गया, वह भी उस क्षण में तो नहीं मान सकता कि पहाड़ नहीं गिर गया है। वैसी ही हमारी दशा है।
क्या करें?
थोड़े दृश्य से द्रष्टा की तरफ चलें! देखें सब, लेकिन देखने वाले को न भूलें। सुनें सब, सुनने वाले को न भूलें। करें सब, लेकिन स्मरण रखें कि कर्ता नहीं हैं।
ओशो रजनीश
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