अष्‍टावक्र : महागीता भाग 10

 एको विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना

 प्रज्वाल्याज्ञानगहन वीतशीकः सुखीभव ॥९॥


अष्टावक्र जी स्पष्ट करते हैं कि मैं विशुद्ध ज्ञान - स्वरूप इस दिव्य विश्वास और ज्ञान की पवित्र अग्नि की तीव्र ज्वाला में देह-भाव का अज्ञान स्वयं ही भस्म हो जाएगा और तत्वतः प्रकाशित चेतना से परम सुख की प्राप्ति स्वयं हो जाएगी ॥ ९ ॥

'मैं एक विशुद्ध बोध हूं ऐसी निश्चय—रूपी अग्नि से अज्ञान—रूपी वन को जला कर तू वीतशोक हुआ सुखी हो।’ अभी हो जा दुख के पार!

एक छोटी—सी बात को जान लेने से दुख विसर्जित हो जाता है कि मैं विशुद्ध बोध हूं कि मैं मात्र साक्षी— भाव हूं कि मैं केवल द्रष्टा हूं।

अहंकार का रोग एकमात्र रोग है।

जितना तुम चाहोगे उतना ही तुम्हारे जीवन में दुख होगा। जितना तुम देखोगे कि बिना चाहे कितना मिला है! अपूर्व तुम्हारे ऊपर बरसा है! अकारण! तुमने कमाया क्या है? क्या थी कमाई तुम्हारी, जिसके कारण तुम्हें जीवन मिले? क्या है तुम्हारा अर्जन, जिसके कारण क्षण भर तुम सूरज की किरणों में नाचो, चांद—तारों से बात करो? क्या है कारण? क्या है तुम्हारा बल? क्या है प्रमाण तुम्हारे बल का, कि हवाएं तुम्हें छुए और तुम गुनगुनाओ, आनंदमग्न हो, कि ध्यान संभव हो सके? इसके लिए तुमने क्या किया है? यहां सब तुम्हें मिला है—प्रसादरूप! फिर भी तुम परेशान हो। फिर भी तुम कहे चले जाते हो। फिर भी तुम उदास हो। जरूर अहंकार का रोग खाये चला जा रहा है। वही सबको पकड़े हुए है।

जब बच्चा पैदा होता है तो कोई अहंकार नहीं होता; बिलकुल निरहंकार, निर्दोष होता है; खुली किताब होता है; कुछ भी लिखावट नहीं होती; खाली किताब होता है! फिर धीरे—धीरे अक्षर लिखे जाते हैं। फिर धीरे—धीरे अहंकार निर्मित किया जाता है। मां—बाप, परिवार, समाज, स्कूल, विश्वविद्यालय, फिर उसके अहंकार को मजबूत करते चले जाते हैं। यह सारी प्रक्रिया हमारे शिक्षण की और संस्कार की, सभ्यता और संस्कृति की, बस एक बीमारी को पैदा करती है—अहंकार को जन्माती है। यह अहंकार फिर जीवन भर हमारे पीछे प्रेत की तरह लगा रहता है।

अगर तुम धर्म का ठीक अर्थ समझना चाहो तो इतना ही है : समाज, संस्कृति, सभ्यता तुम्हें जो बीमारी दे देते हैं, धर्म उस बीमारी की औषधि है, और कुछ भी नहीं। धर्म समाज—विरोधी है, सभ्यता— विरोधी है; संस्कृति—विरोधी है। धर्म बगावत है। धर्म क्रांति है।

धर्म क्रांति का कुल अर्थ इतना ही है कि तुम्हें जो दे दिया है दूसरों ने उसे किस भाति तुम्हें सिखाया जाये कि तुम उसे छोड़ दो। उसे पकड कर मत चलो—वही तुम्‍हारी पीड़ा है; वही तुम्हारा नर्क है। अहंकार के अतिरिक्त जीवन में और कोई बोझ नहीं है। अहंकार अतिरिक्त जीवन में और कोई बंधन जंजीर नहीं है।

'मैं एक विशुद्ध बोध हूं ऐसी निश्चय रूपी अग्नि से अज्ञान—रूपी वन को जला कर तू वीतशोक हो, सुखी हो!'

अहंकार का अर्थ है : अपने चैतन्य को किसी और चीज से जोड़ लेना।

एक आदमी कहता है कि मैं बुद्धिमान हूं तो उसने बुद्धिमानी से अपने अहंकार को जोड़ लिया; तो उसकी चेतना अशुद्ध हो गयी।

तुमने देखा, दूध में कोई पानी मिला देता है तो हम कहते हैं, दूध अशुद्ध हो गया। लेकिन अगर पानी मिलाने वाला कहे कि हमने बिलकुल शुद्ध पानी मिलाया है, फिर? तब भी तुम कहोगे अशुद्ध हो गया। शुद्ध पानी मिलाओ या अशुद्ध, यह थोड़े ही सवाल है—पानी मिलाया! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने शुद्ध पानी मिलाया, तो भी दूध तो अशुद्ध हो गया! और अगर गौर करो तो दूध ही अशुद्ध नहीं हुआ, पानी भी अशुद्ध हो गया। पानी और दूध दोनों शुद्ध थे अलग—अलग, मिलकर अशुद्ध हो गये

विपरीत और विजातीय और अन्य से मिलकर उपद्रव होता है। चैतन्य जैसे ही अपने से भिन्न से मिल जाता है। तुमने कहा, मैं बुद्धिमान...। बुद्धि यंत्र है; उसका उपयोग करो। बुद्धिमान मत बनो। यही बुद्धिमानी है—बुद्धिमान मत बनो! तुमने कहा, मैं बुद्धिमान—उपद्रव शुरू हुआ! दूध पानी से मिल गया। फिर तुम्हारी बुद्धि कितनी शुद्ध हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुमने कहा, मैं चरित्रवान—दूध पानी मिल गया। अब तुम्हारा चरित्र कितना ही शुद्ध हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। दुश्चरित्र और सच्चरित्र दोनों के अहंकार होते हैं।

अष्टावक्र कहते हैं, 'मैं एक विशुद्ध बोध हूं।’ न तो मैं बुद्धिमान हूं, न मैं चरित्रवान हूं न मैं चरित्रहीन हूं न मैं सुंदर हूं न मैं असुंदर हूं न मैं जवान हूं न मैं बूढ़ा हूं? न गोरा न काला, न हिंदू न मुसलमान, न ब्राह्मण न शूद्र—मेरा कोई तादात्म्य नहीं है। मैं इन सबको देखने वाला हूं।

जैसे तुमने दीया जलाया अपने घर में, तो दीये की रोशनी टेबिल पर भी पड़ती है, कुर्सी पर भी पड़ती है, दीवाल पर भी पड़ती है, दीवाल—घड़ी पर भी पड़ती है, फर्नीचर पर, अलमारी पर, कालीन पर, फर्श पर, छप्पर पर—सब पर पड़ती है। तुम बैठे, तुम पर भी पड़ती है। लेकिन ज्योति न तो दीवाल है, न छप्पर है, न फर्श है, न टेबिल है, न कुर्सी है। सब रोशन है उस रोशनी में; लेकिन रोशनी अलग है।

शुद्ध चैतन्य तुम्हारी रोशनी है, तुम्हारा बोध है। वह बोध तुम्हारी बुद्धि पर भी पड़ता, तुम्हारी देह पर भी पड़ता, तुम्हारे कृत्य पर भी पड़ता; लेकिन तुम उनमें से कोई भी नहीं हो।

जब तक तुम अपने को किसी से जोड़कर जानोगे, तब तक अहंकार पैदा होगा। अहंकार है चेतना का किसी अन्य वस्तु से तादात्म्य। जैसे ही तुमने सारे तादात्म्य छोड़ दिये—तुमने कहा, मैं तो बस शुद्ध बोध हूं मैं तो शुद्ध बोध हूं शुद्ध बुद्ध हूं—वैसे ही तुम घर लौटने लगे; मुक्ति का क्षण करीब आने लगा।

अष्टावक्र कहते हैं, 'विशुद्ध बोध हूं ऐसी धारणा।’

अहं एका विशुद्ध बोध: इति। 

ऐसे निश्चय—रूपी अग्नि से...।

यह क्या है निश्चय—रूपी बात? सुनकर यह निश्चय न होगा। केवल बुद्धि से समझकर यह निश्चय न होगा। ऐसा तो बहुत बार तुमने समझ लिया है, फिर—फिर भूल जाते हो। अनुभव से यह निश्चय होगा। थोड़े प्रयोग करोगे तो निश्चय होगा। प्रतीति होगी तो निश्चय होगा। और निश्चय होगा तो क्रांति घटित होगी। 

'... अज्ञान—रूपी वन को जला कर तू वीतशोक हुआ सुख को प्राप्त हो, सुखी हो।’

ओशो रजनीश 




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