अष्‍टावक्र : महागीता भाग 3

 अष्टावक्र उवाच।

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज।

क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद् भज।। 2।।

अष्टावक्र ने कहा

राजन मुक्ति चाहते हो, तो पहले सब प्रकार के सांसारिक विषय-भोगों को विष मानकर उनको सर्वथा परित्याग करना होगा। (क्योकि विषयों के भोगने से प्राणी संसार-चक्र रूपी मृत्यु को ही प्राप्त होता है।) और पाँच सद्गुणों को अपने विचारों और कार्यों में अमृत के समान धारण करना होगा। ये पाँच सद्गुण है - क्षमा, दया,(आर्जव) सरलता, संतोष और सत्य ॥२ ॥

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज।

शब्द 'विषयबड़ा बहुमूल्य है—वह विष से ही बना है। विष का अर्थ होता हैजिसे खाने से आदमी मर जाये। विषय का अर्थ होता हैजिसे खाने से हम बार—बार मरते हैं। बार—बार भोगबार—बार भोजनबार—बार महत्वाकांक्षाईर्ष्याक्रोधजलन—बार—बार इन्हीं को खा—खा कर तो हम मरे हैं! बार—बार इन्हीं के कारण तो मरे हैं! अब तक हमने जीवन में जीवन कहा जानामरने को ही जाना है। अब तक हमारा जीवन जीवन की प्रज्वलित ज्योति कहांमृत्यु का ही धुआ है। जन्म से ले कर मृत्यु तक हम मरते ही तो हैं धीरे—धीरेजीते कहांरोज—रोज मरते हैं! जिसको हम जीवन कहते हैंवह एक सतत मरने की प्रक्रिया है। अभी हमें जीवन का तो पता ही नहींतो हम जीयेगे कैसेयह शरीर तो रोज क्षीण होता चला जाता है। यह बल तो रोज खोता चला जाता है। ये भोग और विषय तो रोज हमें चूसते चले जाते हैंजराजीर्ण करते चले जाते हैं। ये विषय और कामनाएं तो छेदों की तरह हैंइनसे हमारी ऊर्जा और आत्मा रोज बहती चली जाती है। आखिर में घड़ा खाली हो जाता हैउसको हम मृत्यु कहते हैं।
तुमने कभी देखाअगर छिद्र वाले घड़े को कुएं में डालो तो जब तक घड़ा पानी में डूबा होता हैभरा मालूम पड़ता हैउठाओपानी के ऊपर खींचो रस्सीबस खाली होना शुरू हुआ! जोर का शोरगुल होता है। उसी को तुम जीवन कहते होजलधारें गिरने लगती हैंउसी को तुम जीवन कहते होऔर घड़ा जैसे—जैसे पास आता हाथ केखाली होता चला जाता है। जब हाथ में आता हैतो खाली घड़ा! जल की एक बूंद भी नहीं! ऐसा ही हमारा जीवन है।
बच्चा पैदा नहीं हुआभरा मालूम होता हैपैदा हुआ कि खाली होना शुरू हुआ। जन्म का पहला दिन मृत्यु का पहला दिन है। खाली होने लगा। एक दिन मरादो दिन मरातीन दिन मरा! जिनको तुम 'जन्म—दिनकहते होअच्छा हो, 'मृत्यु—दिनकहो तो ज्यादा सत्यतर होगा .। एक साल मर जाते होउसको कहते होचलो एक जन्म—दिन आ गया! पचास साल मर गयेकहते हो, 'पचास साल जी लियेस्वर्ण—जयंती मनाएं!पचास साल मरे। मौत करीब आ रही हैजीवन दूर जा रहा है। घड़ा खाली हो रहा है! जो दूर जा रहा हैउसके आधार पर तुम जीवन को सोचते हो या जो पास आ रहा है उसके आधार परयह कैसा उलटा गणित! हम रोज मर रहे हैं। मौत करीब सरकती आती है।
अष्टावक्र कहते हैं. विषय हैं विषवतक्योंकि उन्हें खा—खा कर हम सिर्फ मरते हैंउनसे कभी जीवन तो मिलता नहीं।
'यदि तू मुक्ति चाहता हैहे तातहे प्रियतो विषयों को विष के समान छोड़ देऔर क्षमाआर्जवदयासंतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।
अमृत का अर्थ होता हैजिससे जीवन मिलेजिससे अमरत्व मिलेजिससे उसका पता चले जो फिर कभी नहीं मरेगा।
तो क्षमा!
क्रोध विष हैक्षमा अमृत है।
आर्जव!
कुटिलता विष हैसीधा—सरलपनआर्जव अमृत है।
दया!
कठोरताक्रूरता विष हैदयाकरुणा अमृत है।
संतोष।
असंतोषका कीड़ा खाए चला जाता है। असंतोष का कीड़ा हृदय में कैंसर की तरह हैफैलता चला जाता हैविष को फैलाए चले जाता है।
संतोष—जो है उससे तृप्तिजो नहीं है उसकी आकांक्षा नहीं। जो है वह काफी से ज्यादा है। वह है ही काफी से ज्यादा। आंख खोलोजरा देखो!
संतोष कोई थोपना नहीं है ऊपर जीवन के। जरा गौर से देखोतुम्हें जो मिला है वह तुम्हारी जरूरत से सदा ज्यादा है! तुम्हें जो चाहिए वह मिलता ही रहा है। तुमने जो चाहा हैवह सदा मिल गया है। तुमने दुख चाहा है तो दुख मिल गया है। तुमने सुख चाहा है तो सुख मिल गया है। तुमने गलत चाहा तो गलत मिल गया है। तुम्हारी चाह ने तुम्हारे जीवन को रचा है। चाह बीज हैफिर जीवन उसकी फसल है। जन्मों—जन्मों में जो तुम चाहते रहे हो वही तुम्हें मिलता रहा है। कई बार तुम सोचते हो हम कुछ और चाह रहे हैंजब मिलता है तो कुछ और मिलता है—तो तुम्हारे चाहने में भूल नहीं हुई है सिर्फ तुमने चाहने के लिए गलत शब्द चुन लिया था। जैसे—तुम चाहते हो सफलतामिलती है विफलता। तुम कहते होविफलता मिल रही हैचाही तो सफलता थी।

लेकिन जिसने सफलता चाही उसने विफलता को स्वीकार कर ही लिया; वह विफलता से भीतर डर ही गया है। विफलता के कारण ही तो सफलता चाह रहा है। और जब—जब सफलता चाहेगा तब—तब विफलता का खयाल आयेगा। विफलता का खयाल भी मजबूत होता चला जायेगा। सफलता तो कभी मिलेगी; लेकिन रास्ते पर यात्रा तो विफलता—विफलता में ही बीतेगी। विफलता का भाव संगृहीभूत होगा। वह इतना संगृहीभूत हो जायेगा कि वही एक दिन प्रगट हो जायेगा। तब तुम कहते हो कि हमने तो सफलता चाही थी। लेकिन सफलता के चाहने में तुमने विफलता को चाह लिया।

तुम कहते हो : हमने सम्मान चाहा था, अपमान मिल रहा है। सम्मान चाहता ही वही व्यक्ति है, जिसका अपने प्रति कोई सम्मान नहीं। वही तो दूसरों से सम्मान चाहता है। अपने प्रति जिसका अपमान है वही तो दूसरों से अपने अपमान को भर लेना चाहता है, ढांक लेना चाहता है। सम्मान की आकांक्षा इस बात की खबर है कि तुम अपने भीतर अपमानित अनुभव कर रहे हो; तुम्हें अनुभव हो रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं दूसरे मुझे कुछ बना दें, सिंहासन पर बिठा दें, पताकाएं फहरा दें, झंडे उठा लें मेरे नाम के—दूसरे कुछ कर दें!

तुम भिखमंगे हो! तुमने अपना अपमान तो खुद कर लिया जब तुमने सम्मान चाहा। और यह अपमान गहन होता जायेगा।

इस दुनिया में सम्मान उन्हें मिलता है जिन्होंने सम्मान नहीं चाहा। सफलता उन्हें मिलती है जिन्होंने सफलता नहीं चाही। क्योंकि जिन्होंने सफलता नहीं चाही उन्होंने तो स्वीकार ही कर लिया कि सफल तो हम हैं ही, अब और चाहना क्या है? सम्मान तो हमारे भीतर आत्मा का है ही; अब और चाहना क्या है? परमात्मा ने सम्मान दे दिया तुम्हें पैदा करके; अब और किसका सम्मान चाहते हो? परमात्मा ने तुम्हें काफी गौरव दे दिया! जीवन दिया! यह सौभाग्य दिया कि आंख खोलो, देखो हरे वृक्षों को, फूलों को, पक्षियों को! कान दिए—सुनो संगीत को, जलप्रपात के मरमर को! बोध दिया कि बुद्ध हो सको! अब और क्या चाहते हो? सम्मानित तो तुम हो गये! परमात्मा ने तुम्हें प्रमाण—पत्र दिया। तुम भिखारी की तरह किनसे प्रमाण—पत्र मांग रहे हो? उनसे, जो तुमसे प्रमाण—पत्र मांग रहे हैं?

यह बड़ा मजेदार मामला है : दो भिखारी एक—दूसरे के सामने खड़े भीख मांग रहे हैं! यह भीख मिलेगी कैसे? दोनों भिखारी हैं। तुम किससे सम्मान मांग, रहे हो? किसके सामने खड़े हो? यह अपमान कर रहे हो तुम अपना। और यही अपमान गहन होता जायेगा।

संतोष का अर्थ होता है : देखो, जो तुम्हारे पास है। देखो जरा आंख खोल कर, जो तुम्हें मिला ही है। यह अष्टावक्र की बड़ी बहुमूल्य कुंजी है। यह धीरे—धीरे तुम्हें साफ होगी। अष्टावक्र की दृष्टि बड़ी क्रांतिकारी है, बड़ी अनूठी है, जड़—मूल से क्रांति की है।

'संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।'

क्योंकि असत्य के साथ जो जीयेगा वह असत्य होता चला जायेगा। जो असत्य को बोलेगा, असत्य को जीयेगा, स्वभावत: असत्य से घिरता चला जायेगा। उसके जीवन से संबंध विच्छिन्न हो जाएंगे, जड़ें टूट जाएंगी।

परमात्मा में जड़ें चाहते हो तो सत्य के द्वारा ही वे जड़ें हो सकती हैं। प्रामाणिकता और सत्य के द्वारा ही तुम परमात्मा से जुड़ सकते हो। परमात्मा से टूटना है तो असत्य का धुआ पैदा करो, असत्य के बादल अपने पास बनाओ। जितने तुम असत्य होते चले जाओगे उतने परमात्मा से दूर होते चले जाओगे।

ओशो रजनीश 




Comments

Popular posts from this blog

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 11

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 14

अष्‍टावक्र : महागीता भाग 10