अष्‍टावक्र : महागीता भाग 12

 मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।

 किंवदंतीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥ ११ ॥


जिस व्यक्ति को यह निश्चय हो जाता है कि 'मैं मुक्त रूप हूँ ।" वही मुक्त हो जाता है और जो समझता है कि मैं अल्पज्ञ जीव 'संसार बन्धन में अनिवार्य रूप से बँधा हूँ, वह बँधा रहता है। जैसी मति, वैसी ही गति होती है यह लोकप्रिय किंवदन्ती सत्य ही है ॥ ११ ॥ (बंधन और मोक्ष ये सब मन के धर्म हैं। मुझमें ये सब तीनों में नहीं हैं, किन्तु मैं सबका साक्षी हूँ, ऐसा दृढ़ निश्चयवाला ही नित्य मुक्त है)

'मुक्ति का अभिमानी मुक्त है और बद्ध का अभिमानी बद्ध है। क्योंकि इस संसार में यह लोकोक्ति सच है कि जैसी मति वैसी गति।
यह सूत्र मूल्यवान है।
'मुक्ति का अभिमानी मुक्त है।
जिसने जान लिया कि मैं मुक्त हूं वह मुक्त है। मुक्ति के लिए कुछ और करना नहींइतना जानना ही है कि मैं मुक्त हूं! तुम्हारे करने से मुक्ति न आयेगीतुम्हारे जानने से मुक्ति आयेगी। मुक्ति कृत्य का परिणाम नहींज्ञान का फल है।
मुक्ति का अभिमानी मुक्त हैऔर बद्ध का अभिमानी बद्ध है।
जो सोचता है मैं बंधा हूं वह बंधा है। जो सोचता है मैं मुक्त हूंवह मुक्त है।
तुम जरा करके भी देखो! एक चौबीस घंटे ऐसा सोचकर देखो कि चलो चौबीस घंटे यही सही : मुक्त हूं! चौबीस घंटे मुक्त रहकर देख लो। तुम बड़े चकित होओगेतुम्हें खुद ही भरोसा न आयेगा। कि अगर तुम सोच लो मुक्त हो तो कोई नहीं बांधने वाला है। तो तुम मुक्त हो। तुम सोच लो कि बंधा हूं तो हर चीज बांधने वाली है।
तुम जैसा सोचते हो वैसा ही हो गया है। तुम्हारे सोचने ने तुम्हारा संसार निर्मित कर दिया है। सोच को बदलो। जागो! और ढंग से देखो। सब यही रहेगासिर्फ तुम्हारे देखनेसोचनेजानने के ढंग बदल जायेंगे—और सब बदल जायेगा।
जैसा सोचोजैसी मति वैसी गति हो जाती है।
'आत्मा साक्षी हैव्यापक हैपूर्ण हैएक हैमुक्त हैचेतन हैक्रिया—रहित हैअसंग हैनिस्पृह हैशांत है। वह भ्रम के कारण संसार जैसा भासता है।

ओशो रजनीश




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