अष्‍टावक्र : महागीता भाग 6

 न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचर:।

असंगोऽमि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।5।।

यदि आप सचमुच आत्म-ज्ञान के जिज्ञासु और ब्रह्म-ज्ञान-पथ के पथिक हैं, तो यह जानना अनिवार्य है कि आपकी आत्मा न तो विप्रादि किसी वर्ण की है और न ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि किसी आश्रम के बन्धन में बँधी है। वह आँखों से प्रत्यक्ष दिखनेवाले प्रत्येक विषय और बन्धन से मुक्त है, असंग है, निराकर है। वह तो इस दृश्यमान विश्व के इन सब रूपों का साक्षी मात्र है। इनमें लिप्त नहीं है। यह जान-समझ लेने पर आप सदा सुखी रहेंगे ||५||

'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है।’

अब हिंदू इस शास्त्र को कैसे सिर पर उठायें! क्योंकि उनका तो सारा धर्म वर्ण और आश्रम पर खड़ा है। और यह तो पहले से ही अष्टावक्र जड़ काटने लगे। वे कहते हैं, तू कोई ब्राह्मण नहीं है, न कोई शूद्र है, न कोई क्षत्रिय है। यह सब बकवास है! ये सब ऊपर के आरोपण हैं। यह सब राजनीति और समाज का खेल है। तू तो सिर्फ ब्रह्म है, ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय नहीं, शूद्र नहीं!

'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं और न तू कोई आश्रम वाला है।’

और न तो यह है कि तू कोई ब्रह्मचर्य—आश्रम में है कि गृहस्थ—आश्रम में है, कि वानप्रस्थ कि संन्यस्त, कोई आश्रम वाला नहीं है। तू तो इस सारे स्थानों के भीतर से गुजरने वाला द्रष्टा, साक्षी है। अष्टावक्र की गीता, हिंदू दावा नहीं कर सकते, हमारी है। अष्टावक्र की गीता सबकी है। अगर अष्टावक्र के समय में मुसलमान होते, हिंदू होते, ईसाई होते, तो उन्होंने कहा होता, 'न तू हिंदू है, न तू ईसाई है, न तू मुसलमान है।’ अब ऐसे अष्टावक्र को.. कौन मंदिर बनाये इसके लिए! कौन इसके शास्त्र को सिर पर उठाये! कौन दावेदार बने! क्योंकि ये सभी का निषेध कर रहे हैं। मगर यह सत्य की सीधी घोषणा है।  'असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है—ऐसा जान कर सुखी हो!'

अष्टावक्र यह नहीं कहते कि ऐसा तुम जानोगे तो फिर सुखी होओगे। वचन को ठीक से सुनना। अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा जान कर सुखी हो!

न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचर।

असंगोsसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।

सुखी भव! अभी हो सुखी!

जनक पूछते हैं, 'कैसे सुख होगा? कैसे बंधन—मुक्ति होगी? कैसे ज्ञान होगा?'

अष्टावक्र कहते हैं, अभी हो सकता है। क्षणमात्र की भी देर करने की कोई जरूरत नहीं है। इसे कल पर छोड़ने का कोई कारण नहीं, स्थगित करने की कोई जरूरत नहीं। यह घटना भविष्य में नहीं घटती, या तो घटती है अभी या कभी नहीं घटती। जब घटती है तब अभी घटती है। क्योंकि 'अभी' के अतिरिक्त कोई समय ही नहीं है। भविष्य कहां है? जब आता है तब अभी की तरह आता है।

तो जो भी ज्ञान को उत्पन्न हुए हैं—'अभी' उत्पन्न हुए हैं। कभी पर मत छोड़ना—वह मन की चालाकी है। मन कहता है, इतने जल्दी कैसे हो सकता है; तैयारी तो कर लें!

 कभी पर टाला तो सदा के लिए टाला। कभी आता ही नहीं।  अभी के अतिरिक्त कोई समय ही नहीं है। अभी है जीवन। अभी है मुक्ति। अभी है अज्ञान, अभी है ज्ञान। अभी है निद्रा, अभी हो सकता जागरण। कभी क्यों? कठिन होता है मन को, क्योंकि मन कहता है तैयारी तो करने दो! मन कहता है, 'कोई भी काम तैयारी के बिना कैसे घटता है? आदमी को विश्वविद्यालय से प्रमाण—पत्र लेना है तो वर्षों लगते हैं। डाक्टरेट करनी है तो बीस—पचीस साल लग जाते हैं, मेहनत करते—करते, फिर आदमी जाकर डाक्टर हो पाता है। अभी कैसे हो सकते हैं?'

अष्टावक्र भी जानते हैं : दुकान करनी हो तो अभी थोड़े खुल जायेगी! इकट्ठा करना पड़े, आयोजन करना पड़े, सामान लाना पड़े, दुकान बनानी पड़े, ग्राहक खोजने पड़े, विज्ञापन भेजना पड़े—वर्षों लगते हैं! इस जगत में कोई भी चीज 'अभी' तो घटती नहीं; क्रम से घटती है। ठीक है। अष्टावक्र भी जानते हैं, लेकिन एक घटना यहां ऐसी है जो अभी घटती है—वह परमात्मा है। वह तुम्हारी दुकान नहीं है, न तुम्हारा परीक्षालय है, न तुम्हारा विश्वविद्यालय है। परमात्मा क्रम से नहीं घटता। परमात्मा घट ही चुका है। आंख भर खोलने की बात है—सूरज निकल ही चुका है। सूरज तुम्हारी आंख के लिए नहीं रुका है कि तुम जब आंख खोलोगे, तब निकलेगा। सूरज निकल ही चुका है। प्रकाश सब तरफ भरा ही है। अहर्निश गज रहा है उसका नाद! ओंकार की ध्वनि सब तरफ गंज रही है! सतत अनाहत चारों तरफ गंज रहा है! खोलो कान! खोलो आंख!

आंख खोलने में कितना समय लगता है? उतना समय भी परमात्मा को पाने में नहीं लगता। पल तो लगता है पलक के झपने में। पल का अर्थ होता है, जितना समय पलक को झपने में लगता, उतना पल। मगर परमात्मा को पाने में पल भी नहीं लगता।

विश्वसाक्षी असंगोउसि निराकारो। सुखी भव!

अभी हो सुखी! उधार नहीं है अष्टावक्र का धर्म—नगद, कैश..।

ओशो रजनीश 





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