अष्‍टावक्र : महागीता भाग 13

 आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्ताश्चिदक्रियः । 

असंगोनिःस्ष्टहः शांतो भ्रमात्संसारवानिव ॥१२॥


आत्मा स्वभाव से ही विभु (सर्व का अधिष्ठान ) है, सर्वत्रव्याप्त है, कर्म-बंधन से मुक्त है, विषय - वृत्ति से असंग है, आत्मा निस्पृह (विषयों की अभिलाषा से रहित) है, प्रवृत्ति निवृत्ति रहित है और सदा शान्त है। आत्मा का संसारी रूप केवल भ्रम है, जो अज्ञान से पैदा होता है ॥ १२ ॥ (ज्ञान की स्थिति बनाए रखने के लिए श्रवण-मनन आदि की आवृत्ति बार-बार करनी चाहिए। महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को 'तत्त्वमसि' महावाक्य का नौ बार उपदेश किया था।)


'आत्मा साक्षी है, व्यापक है, पूर्ण है, एक है, मुक्त है, चेतन है, क्रिया—रहित है, असंग है, निस्पृह है, शांत है। वह भ्रम के कारण संसार जैसा भासता है।’

साक्षी, व्यापक, पूर्ण—सुनो इस शब्द को!

अष्टावक्र कहते हैं, तुम पूर्ण हो! पूर्ण होना नहीं है। तुममें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। तुममें कुछ विकास नहीं करना है। तुम्हें कुछ सोपान नहीं चढ़ने हैं। तुम्हारे आगे कुछ भी नहीं है। तुम पूर्ण हो, तुम परमात्मा हो, व्यापक हो, साक्षी हो, एक हो, मुक्त हो, चेतन हो, क्रिया—रहित हो, असंग हो। किसी ने तुम्हें बांधा नहीं, कोई संग—साथी नहीं है। अकेले हो! परम स्वात में हो! निस्पृह हो!

अष्टावक्र का योग बड़ा सहजयोग है।

साधो सहज समाधि भली!

'मैं आभास—रूप अहंकारी जीव हूं ऐसे भ्रम को और बाहर—भीतर के भाव को छोड़ कर तू कूटस्थ बोध—रूप अद्वैत आत्मा का विचार कर।’

'अहं आभास: इति—मैं आभास—रूप अहंकारी जीव हूं!'

यह तुमने जो अब तक मान रखा है, यह सिर्फ आभास है। यह तुमने जो मान रखा है, यह तुम्हारी मान्यता है, मति है। यद्यपि तुम्हारे आसपास भी ऐसा ही मानने वाले लोग हैं, इसलिए तुम्हारी मति को बल भी मिलता है। आखिर आदमी अपनी मति उधार लेता है। तुम दूसरों से सीखते हो। आदमी अनुकरण करता है। यहां सभी दुखी हैं, तुम भी दुखी हो गये हो।

ओशो रजनीश





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