अष्‍टावक्र : महागीता भाग 4

 न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुधौर्न वा भवान्।

एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्दि मुक्तये।।3।।

राजन! आप विश्व व्याप्त दिव्य चेतना के ही अंश हैं। अजर अमर नित्य चैतन्य आत्मा है, यही आपका सच्चा स्वरूप है। आप न पृथ्वी हैं न जल, न अग्नि, न वायु और नही आकाश हैं। इन पंच भूतों से अलग केवल इनके साक्षीभूत स्वतः ज्ञानमय आत्मा है, जड़ पंच भूतों के अंश नहीं

सीधी—सीधी बातें हैं; भूमिका भी नहीं है। अभी दो वचन नहीं बोले अष्टावक्र ने कि ध्यान आ गया, कि समाधि की बात आ गई। जानने वाले के पास समाधि के अतिरिक्त और कुछ जताने को है भी नहीं। वह दो वचन भी बोले, क्योंकि एकदम से अगर समाधि की बात होगी तो शायद तुम चौंक ही जाओगे, समझ ही न पाओगे। मगर दो वचन—और सीधी समाधि की बात आ गई!

'तू न पृथ्वी है, न जल, न वायु, न आकाश'—ऐसी प्रतीति में अपने को थिर कर।’मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।'

'साक्षी' सूत्र है। इससे महत्वपूर्ण सूत्र और कोई भी नहीं। देखने वाले बनो! जो हो रहा है उसे होने दो; उसमें बाधा डालने की जरूरत नहीं। यह देह तो जल है, मिट्टी है, अग्नि है, आकाश है। तुम इसके भीतर तो वह दीये हो जिसमें ये सब जल, अग्नि, मिट्टी, आकाश, वायु प्रकाशित हो रहे हैं। तुम द्रष्टा हो। इस बात को गहन करो।

साक्षिणां चिद्धूपं आत्मानं विदि.......

यह इस जगत में सर्वाधिक बहुमूल्य सूत्र है। साक्षी बनो! इसी से होगा ज्ञान! इसी से होगा वैराग्य! इसी से होगी मुक्ति!

प्रश्न तीन थे, उत्तर एक है।

'यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो तू अभी ही सुखी, शात और बंध—मुक्त हो जायेगा।’

इसलिए मैं कहता हूं यह जड़—मूल से क्रांति है। पतंजलि इतनी हिम्मत से नहीं कहते कि 'अभी ही।’ पतंजलि कहते हैं, 'करो अभ्यास—यम, नियम; साधो—प्राणायाम, प्रत्याहार, आसन; शुद्ध करो। जन्म—जन्म लगेंगे, तब सिद्धि है।’

सुनो अष्टावक्र को

ओशो रजनीश 




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