अष्‍टावक्र : महागीता भाग 8

 अष्टावक्र उवाच।

एको द्रष्टाsसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।

अयमेव हि ते बंधो द्रष्टारं यश्यसीतरम्।।7।।


मन में यह धारणा स्थिर कर लो कि आप तो आत्मा हैं, देह नहीं हैं। आत्मा तो मात्र दृष्टा है, साक्षी मात्र है; कर्म का कर्ता नहीं है। वह स्वभाव से मुक्त ही है । इस दृष्टा को कर्ता या भोक्ता रूप में देखने की इच्छा करना ही अज्ञान है और यह अज्ञान ही बंधन का कारण बन जाता है। (अज्ञानी लोग ही मानते हैं कि अपने से भिन्न कोई दृष्टा है और कर्मों का फल प्रदाता है। ज्ञानवान ऐसा नहीं मानते) !!7!!

अष्‍टावक्र ने कहा, तू सबका एक द्रष्टा है और सदा सचमुच मुक्त है। तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़ दूसरे को द्रष्टा देखता है।’

यह सूत्र अत्यंत बहुमूल्य है। एक—एक शब्द इसका ठीक से समझें!

'तू सबका एक द्रष्टा है। एको द्रष्टाऽसि सर्वस्व! और सदा सचमुच मुक्त है।’


साधारणत: हमें अपने जीवन का बोध दूसरों की आंखों  से मिलता है। हम दूसरों की आंखों  का दर्पण की तरह उपयोग करते हैं। इसलिए हम द्रष्टा को भूल जाते हैं, और दृश्य बन जाते है। स्वाभाविक भी है।

छोटा बच्चा पैदा हुआ। उसे अभी अपना कोई पता नहीं। वह दूसरों की आंखों  में झांककर ही देखेगा कि मैं कौन हूं।

अपना चेहरा तो दिखायी पडता नहीं, दर्पण खोजना होगा। जब तुम दर्पण में अपने को देखते हो तो तुम दृश्य हो गये, द्रष्टा न रहे। तुम्हारी अपने से पहचान ही कितनी है? उतनी जितना दर्पण ने कहा।

मां कहती है बेटा सुंदर है, तो बेटा अपने को सुंदर मानता है। शिक्षक कहते हैं स्कूल में, बुद्धिमान हो, तो व्यक्ति अपने को बुद्धिमान मानता है। कोई अपमान कर देता है, कोई निंदा कर देता है, तो निंदा का स्वर भीतर समा जाता है। इसलिए तो हमें अपना बोध बड़ा भ्रामक मालूम होता है, क्योंकि अनेक स्वरों से मिलकर बना है; विरोधी स्वरों से मिलकर बना है। किसी ने कहा सुंदर हो, और किसी ने कहा, 'तुम, और सुंदर! शक्ल तो देखो आईने में!' दोनों स्वर भीतर चले गये, द्वंद्व पैदा हो गया। किसी ने कहा, बड़े बुद्धिमान हो, और किसी ने कहा, तुम जैसा बुद्ध आदमी नहीं देखा—दोनों स्वर भीतर चले गये, दोनों भीतर जुड़ गये। बड़ी बेचैनी पैदा हो गयी, बड़ा द्वंद्व पैदा हो गया।

इसीलिए तो तुम निश्चित नहीं हो कि तुम कौन हो। इतनी भीड़ तुमने इकट्ठी कर ली है मतों की! इतने दर्पणों में झांका है, और सभी दर्पणों ने अलग—अलग खबर दी! दर्पण तुम्हारे संबंध में थोड़े ही खबर देते हैं, दर्पण अपने संबंध में खबर देते हैं।

तुमने दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम लंबे हो जाते हो; दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम मोटे हो जाते। दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम अति सुंदर दिखने लगते। दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम अति कुरूप हो जाते, अष्टावक्र हो जाते।

दर्पण में जो झलक मिलती है वह तुम्हारी नहीं है, दर्पण के अपने स्वभाव की है। विरोधी बातें इकट्ठी होती चली जाती हैं। इन्हीं विरोधी बातों के संग्रह का नाम तुम समझ लेते हो, मैं हूं! इसलिए तुम सदा कंपते रहते हो, डरते रहते हो।

लोकमत का कितना भय होता है! कहीं लोग बुरा न सोचें। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि मैं मूढ़ हूं! कहीं ऐसा न समझ लें कि मैं असाधु हूं! लोग कहीं ऐसा न समझ लें; क्योंकि लोगों के द्वारा ही हमने अपनी आत्मा निर्मित की है।

अगर तुम्हें स्वयं को पहचानना हो तो तुम्हें दूसरों की आंखों  में देखना बंद कर देना होगा।

बहुत—से खोजी, सत्य के अन्वेषक समाज को छोड़ कर चले गये—उसका कारण यह नहीं था कि समाज में रह कर सत्य को पाना असंभव है, उसका कारण इतना ही था कि समाज में रह कर स्वयं की ठीक—ठीक छवि जाननी बहुत कठिन है। यहां लोग खबर दिये ही चले जाते हैं कि तुम कौन हो। तुम पूछो न पूछो, सब तरफ से झलकें आती ही रहती हैं कि तुम कौन हो। और हम धीरे—धीरे इन्हीं झलकों के लिए जीने लगते हैं।

दूसरे क्या कहते हैं, यह इतना मूल्यवान हो गया है कि तुम पूछते ही नहीं कि तुम कौन हो। दूसरे क्या कहते हैं, उन्हीं की कतरन छांट—छांटकर इकट्ठी अपनी तस्वीर बना लेते हो। वह तस्वीर बड़ी डांवांडोल रहती है, क्योंकि लोगों के मन बदलते रहते हैं। और फिर लोगों के मन ही नहीं बदलते रहते, लोगों के कारण भी बदलते रहते हैं।

कोई आकर तुमसे कह गया कि आप बड़े साधु—पुरुष हैं, उसका कुछ कारण है—खुशामद कर गया। साधु—पुरुष तुम्हें मानता कौन है! अपने को छोड्कर इस संसार में कोई किसी को साधु—पुरुष नहीं मानता।

तुम अपनी ही सोचो न! तुम अपने को छोड्कर किसको साधु —पुरुष मानते हो? कभी—कभी कहना पडता है। जरूरतें हैं, जिंदगी है, अड़चनें हैं—झूठे को सच्चा कहना पडता है; दुर्जन को सज्जन कहना पडता है, कुरूप को सुंदर की तरह प्रशंसा करनी पड़ती है, स्तुति करनी पड़ती है, खुशामद करनी पड़ती है। खुशामद इसीलिए तो इतनी बहुमूल्य है।

खुशामद के चक्कर में लोग क्यों आ जाते हैं? मूढ़ से मूढ़ आदमी से भी कहो कि तुम महाबुद्धिमान हो तो वह भी इनकार नहीं करता  क्योंकि उसको अपना तो कुछ पता नहीं है, तुम जो कहते हो वही सुनता है, तुम जो कहते हो वही हो जाता है।

तो उनके कारण बदल जाते हैं। कोई कहता है, सुंदर हो; कोई कहता है, असुंदर हो; कोई कहता है, भले हो, कोई कहता है, बुरे हो—यह सब इकट्ठा होता चला जाता है। और इन विपरीत मतों के आधार पर तुम अपनी आत्मा का निर्माण कर लेते हो। तुम ऐसी बैलगाड़ी पर सवार हो जिसमें सब तरफ बैल जुते हैं, जो सब दिशाओं में एक साथ जा रही है तुम्हारे अस्थिपंजर ढीले हुए जा रहे हैं। तुम सिर्फ घसिटते हो, कहीं पहुंचते नहीं—पहुंच सकते नहीं!

 'तू सबका एक द्रष्टा है। और तू सदा सचमुच मुक्त है।’

व्यक्ति दृश्य नहीं है, द्रष्टा है।

दुनियां में तीन तरह के व्यक्ति हैं, वे, जो दृश्य बन गये—वे सबसे ज्यादा अंधेरे में हैं, दूसरे वे, जो दर्शक बन गये—वे पहले से थोड़े ठीक हैं, लेकिन कुछ बहुत ज्यादा अंतर नहीं है; तीसरे वे, जो द्रष्टा बन गए। तीनों को अलग—अलग समझ लेना जरूरी है।

जब तुम दृश्य बन जाते हो तो तुम वस्तु हो गये, तुमने आत्मा खो दी। इसलिए राजनेता में आत्मा को पाना मुश्किल है; अभिनेता में आत्मा को पाना मुश्किल है। वह दृश्य बन गया है। वह दृश्य बनने के लिए ही जीता है। उसकी सारी कोशिश यह है कि मैं लोगों को भला कैसे लग र सुंदर कैसे लगू श्रेष्ठ कैसे लग? श्रेष्ठ होने की चेष्टा नहीं है, श्रेष्ठ लगने की चेष्टा है। कैसे श्रेष्ठ दिखायी पडूं!

तो जो दृश्य बन रहा है, वह पाखंडी हो जाता है। वह ऊपर से मुखौटे ओढ़ लेता है, ऊपर से सब आयोजन कर लेता है— भीतर सड़ता जाता है।

फिर दूसरे वे लोग हैं, जो दर्शक बन गए। उनकी बड़ी भीड़ है। स्वभावत: पहले तरह के लोगों के लिए दूसरे तरह के लोगों की जरूरत है; नहीं तो दृश्य बनेंगे लोग कैसे? कोई राजनेता बन जाता है, फिर ताली बजाने वाली भीड़ मिल जाती है। तो दोनों में बड़ा मेल बैठ जाता है। नेता हो तो अनुयायी भी चाहिए। कोई नाच रहा हो तो दर्शक भी चाहिए। कोई गीत गा रहा हो तो सुनने वाले भी चाहिए। तो कोई दृश्य बनने में लगा है, कुछ दर्शक बनकर रह गये हैं। दर्शकों की बड़ी भीड़ है।

स्त्रियां आमतौर से दृश्य बनना पसंद करती हैं, पुरुष आमतौर से दर्शक बनना पसंद करते हैं। मनोवैज्ञानिकों की भाषा में स्त्रियों को वे कहते हैं एग्जीबीशनिस्ट; नुमाइशी। उनका सारा रस नुमाइश बनने में है।

 कई बार  कुछ लोग यह भूल कर लेते हैं, वे समझते हैं दर्शक हो गए तो द्रष्टा हो गये। इन दोनों शब्दों में बड़ा बुनियादी फर्क है। भाषा—कोश में शायद फर्क न हो—वहां दर्शक और द्रष्टा का एक ही अर्थ होगा, लेकिन जीवन के कोश में बड़ा  फर्क है।

दर्शक का अर्थ है दृष्टि दूसरे पर है। और द्रष्टा का अर्थ है : दृष्टि अपने पर है। दृष्टि देखने वाले पर है, तो द्रष्टा। और दृष्टि दृश्य पर है, तो दर्शक। बडा क्रांतिकारी भेद है, बड़ा बुनियादी भेद है! जब तुम्हारी नजर दृश्य पर अटक जाती है और तुम अपने को भूल जाते हो तो दर्शक। जब तुम्हारी दृष्टि से सब दृश्य विदा हो जाते हैं, तुम ही तुम रह जाते हो, जागरण—मात्र रह जाता है, होश—मात्र रह जाता है—तो द्रष्टा।

दर्शक होना एक तरह का आत्म—विस्मरण है। और द्रष्टा होने का अर्थ है. सब दृश्य विदा हो गए। जैसे ही तुम द्रष्टा हुए, तुम्हें पता चलता है द्रष्टा तो एक ही है संसार में, बहुत नहीं हैं। दृश्य बहुत हैं, दर्शक बहुत हैं। अनेकता का अस्तित्व ही दृश्य और दर्शक के बीच है। वह झूठ का जाल है। द्रष्टा तो एक ही है।

ओशो रजनीश





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