अष्टावक्र : महागीता भाग 5
यदि देहं पृथस्कृत्य निति विश्राम्ब तिष्ठसि।
अधुनैव सखी शांत: बंधमक्तो भविष्यसि।।4।।
(मुक्ति के स्वरूप तथा उसे प्राप्त करने के उपाय बताते हुए ऋषिवर कहते हैं) इन पंच भूतों से आपकी देह ही बनी है, आत्मा इनसे पृथक है। आत्मा को देह से पृथक मानकर जिस समय आप अपने विशुद्ध चैतन्य रूप में मन को स्थिर करोगे, उसी समय परम शान्ति और सुख का अनुभव होगा; आपको जीवन मुक्त होने की प्रतीति होगी, मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् अनुभव हो जाएगा और दुःखों से स्वतः मुक्ति मिल जाएगी ॥ ४ ॥
'अधुनैव!' अभी, यहीं, इसी क्षण! 'यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है...!' अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं; मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है—बचपन था कभी तो बचपन देखा, फिर जवानी आयी तो जवानी देखी, फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं हो सकता—आया और गया, मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकता— आई और गई; मैं तो हूं! बुढ़ापा आया, जा रहा है, तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता है जाता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो सदा हूं। जिस पर बचपन आया, जिस पर जवानी आई, जिस पर बुढ़ापा आया, जिस पर हजार चीजें आईं और गईं—मैं वही शाश्वत हूं।
तो पहली बात : जो हो रहा है उसमें से देखने वाले को अलग कर लो!
'देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम..।’
और करने योग्य कुछ भी नहीं है।
ध्यान का आत्यंतिक अर्थ विश्राम है। चिति विश्राम्य तिष्ठसि
—जो विश्राम में ठहरा देता अपनी चेतना को; जो होने मात्र में ठहर जाता...!
कुछ करने को नहीं है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, वह मिला ही हुआ है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, उसे कभी खोया ही नहीं। उसे खोया नहीं जा सकता। वही तुम्हारा स्वभाव है। अयमात्मा ब्रह्म! तुम ब्रह्म हो! तुम सत्य हो! कहां खोजते हो? कहां भागे चले जाते हो? अपने को ही खोजने कहां भागे चले जाते हो? रुको, ठहरो! परमात्मा दौड़ने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा दौड़ने वाले में छिपा है। परमात्मा कुछ करने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा करने वाले में छिपा है। परमात्मा के होने के लिए कुछ करने की जरूरत ही नहीं है—तुम हो ही!
इसलिए अष्टावक्र कहते हैं. चिति विश्राम्य! विश्राम करो! ढीला छोड़ो अपने को! यह तनाव छोड़ो! कहां जाते? कहीं जाने को नहीं, कहीं पहुंचने को नहीं है।
और चैतन्य में विश्राम. तो तू अभी ही, इसी क्षण, अधुनैव, सुखी, शात और बंध—मुक्त हो जायेगा।
अनूठा है वचन! नहीं कोई और शास्त्र इसका मुकाबला करता है।
ओशो रजनीश
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