अष्‍टावक्र : महागीता भाग 7

 धर्माऽधमौं सुखं दुःख मानसानि न तो विभो।

न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।6।।

अष्टावक्र जी आगे कहते हैं कि हे राजन! संसारी धर्म-अधर्म सुख-दुःख सभी आपके मन के मिथ्या संकल्प का परिणाम हैं। विधि-निषेध के ये रूप अस्थायी हैं, परिवर्तनशील हैं। आत्मा न तो कर्ता है और न भोक्ता है, वह तो सदा-सर्वदा इनमें मुक्त रहता है। यही उसका सच्चा स्वभाव है ||६||

मुक्ति हमारा स्वभाव है। ज्ञान हमारा स्वभाव है। परमात्मा हमारा होने का ढंग है; हमारा केंद्र है; हमारे जीवन की सुवास है; हमारा होना है।

धर्माउधमौं सुखं दुःखं मानसानि न तो विभो।

अष्टावक्र कहते हैं, 'हे व्यापक, हे विभावान, हे विभूतिसंपन्न! धर्म और अधर्म, सुख और दुख मन के हैं।’ ये सब मन की ही तरंगें हैं। बुरा किया, अच्छा किया, पाप किया, पुण्य किया, मंदिर बनाया, दान दिया—सब मन के हैं।

न कर्ताउसि न भोक्ताउसि मुक्त एवासि सर्वदा।

'तू तो सदा मुक्त है। तू तो सर्वदा मुक्त है।’

मुक्ति कोई घटना नहीं है जो हमें घटानी है। मुक्ति घट चुकी है हमारे होने में! मुक्‍ति से बना है यह अस्तित्व। इसका रोआं—रोआं, रंच—रंच मुक्ति से निर्मित है। मुक्ति है धातु, जिससे बना है सारा अस्तित्व। स्वतंत्रता स्वभाव है। यह उदघोषणा, बस समझी कि क्रांति घट जाती है। समझने के अतिरिक्त कुछ करना नहीं है। यह बात खयाल में उतर जाये, तुम सुन लो इसे मन भर कर, बस! 

तो अष्टावक्र के साथ एक बात स्मरण रखना : कुछ करने को नहीं है। इसलिए तुम आनंद— भाव से सुन सकते हो। इसमें से कुछ निकालना नहीं है कि फिर करके देखेंगे। जो घटेगा वह सुनने में घटेगा। सम्यक श्रवण सूत्र है।

अधुनैव सुखी शांत: बंधमुक्तो भविष्यसि।

अभी हो जा मुक्त! इसी क्षण हो जा मुक्त! कोई रोक नहीं रहा। कोई बाधा नहीं है। हिलने की भी जरूरत नहीं है। जहां है, वहीं हो जा मुक्त। क्योंकि मुक्त तू है ही। जाग और हो जा मुक्त!

असंगोउसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।

हो जा सुखी! एक पल की भी देर करने की कोई जरूरत नहीं है। छलांग है, क्यांटम छलांग! सीढ़ियां नहीं हैं अष्टावक्र में। क्रमिक विकास नहीं है; सडन, इसी क्षण हो सकता है!

ओशो रजनीश जी के प्रवचनों पर आधारित 





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